संघर्ष मजदूरों का, फैसला हाईकोर्ट का और वाहवाही लूटने में लगी सरकार... इन्दौर का हुकुमचंद मिल मामला

 -प्रकाश कुमार सक्सेना


आज अखबारों में प्रकाशित एक विज्ञापन ने चौंका दिया। "मजदूरों के हित-मजदूरों को समर्पित" कार्यक्रम द्वारा मध्यप्रदेश सरकार अब एक इवेन्ट द्वारा इन्दौर की 12 दिसम्बर 1991 में बन्द की जा चुकी हुकुमचंद मिल के श्रमिकों को उनकी शेष राशि बांटने जा रही है। विज्ञापन देखकर आपको लग सकता है कि मध्यप्रदेश सरकार इन श्रमिकों के प्रति कितनी दयालु है? तो क्या आप भी यही समझ रहे हैं? आइये जानें इस दयालुता के पीछे छिपी धूर्तता के बारे में...

12 दिसम्बर 1991 का वह दिन था जब मध्यप्रदेश में उस समय स्व. सुन्दरलाल पटवाजी की सरकार के कुछ दिन ही शेष थे, तब इस हुकुमचंद मिल को बन्द कर दिया गया था। वहां के श्रमिक अचानक बेरोजगार कर दिये गये थे। तब से अब तक पूरे 32 वर्ष हो चुके हैं और इन मजदूरों को न्याय मिला भी है तो हाईकोर्ट के फैसले से, न कि सरकार की कृपा से। इस बात को बताने के लिये भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय का बयान ही काफी है। वो इस देरी की वजह प्रदेश की अफसरशाही को बताते हैं और आज के इस दिन को ईश्वर की कृपा।

5895 श्रमिकों में से लगभग 2200 सौ संघर्ष करते हुये स्वर्ग सिधार चुके हैं। वो आज सरकार का श्रेय लूटने और उसके लिये जनता के ही धन से प्रायोजित इस इवेन्ट के साक्षी नहीं बन पायेंगे। आज करोड़ों रुपये चेहरा चमकाने पर खर्च करने के लिये निकल आयेंगे लेकिन इन श्रमिकों को उनका अधिकार देने के लिये पिछले 32 वर्षों तक इस सरकार के पास धन नहीं था? या नीयत नहीं थी?

ऐसा नहीं है कि हाईकोर्ट ने यह फैसला अभी ही दिया है। लगभग 16 वर्ष पूर्व हाईकोर्ट ने मजदूरों के पक्ष में 229 करोड़ रुपयों का मुआवजा तय किया था। इसका भुगतान हुकुमचंद मिल की जमीन बेचकर किया जाना था। लेकिन नगरनिगम व शासन के बीच इसको लेकर इतने वर्षों तक विवाद चलता रहा। अभी इसी माह के प्रारंभ में न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर की एकलपीठ ने तीन दिन के अन्दर मजदूरों के खाते में बकाया राशि जमा करने का आदेश दिया था। और यह राशि अब 464 करोड़ रुपये हो चुकी है। हाउसिंग बोर्ड द्वारा 425 करोड़ 89 लाख रुपये भोपाल स्थित बैंक में जमा कराये जाने की खबर भी है। हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश द्वारा तीन दिन के अन्दर बकाया राशि चुकाने के आदेश के बाद भी बिना इवेन्ट के सरकार यह राशि आखिर कैसे चुकाती? जबकि निर्वाचन आयोग भी आचार संहिता के दौरान मजदूरों को भुगतान करने की स्वीकृति दे चुका था। जिस सरकार के विरुद्ध ये श्रमिक इतने वर्ष संघर्ष करते रहे, आज इन विज्ञापनों के द्वारा यही सरकार अब स्वयं को इन श्रमिकों का रहनुमा बताने में लगी हुई है? तय रणनीति के तहत अब इसका श्रेय लूटने की होड़ में पार्टी के नेता हाईकोर्ट की बजाय सरकार को बधाई देने में लग चुके हैं।

इतना ही नहीं... इस मामले में हाईकोर्ट ने संबंधित विभाग के प्रमुख सचिव नीरज मण्डलोई को अवमानना नोटिस भी जारी किया था। उनके न्यायालय में उपस्थित होने पर अवमानना की कार्यवाही पर हाईकोर्ट ने रोक लगाई थी।

इतने वर्षों में श्रमिकों व उनके परिवारों ने बहुत कुछ खोया। अपनी उम्र के 32 वर्ष खोये। बच्चों की परवरिश के अभाव में बच्चों को अच्छा भविष्य न दे पाने का मलाल उनके चेहरों पर स्पष्ट दिखाई देता है। कई के बच्चे इस बीच गलत आदतों का शिकार हो गये। लगभग 2200 लोग स्वर्ग सिधार चुके हैं। सरकार इन बातों को भी अपने विज्ञापनों में स्थान दे पाती तो अच्छा होता? मीडिया तो इन विज्ञापनों से गदगद हो बधाई देने में व्यस्त है। विज्ञापन में अपना चेहरा देखकर प्रधानमंत्री जी भी बहुत खुश होंगे?



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