-प्रकाश कुमार सक्सेना
बात चक्रव्यूह पर चल रही थी कि किस तरह देश की जनता छः लोगों के रचाये चक्रव्यूह में फंसी हुई है। देश की अर्थव्यवस्था कुछ लोगों के लाभ के लिये नृत्य कर रही है। एक प्रतिशत लोगों के पास चालीस प्रतिशत सम्पत्ति और बाइस प्रतिशत आय के साधन हैं? और इसी बात को आगे ले जाते हुये जातिगत जनगणना पर राहुल गांधी संसद में अपनी बात आक्रामक तरीके से रख चुके थे। जातिगत जनगणना का मुद्दा भाजपा के हिन्दुत्व के मुद्दे को छिन्न भिन्न करने पर तुला हुआ है। यदि इंडिया गठबंधन इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाने और इसकी हवा बनाने में सफल हुआ तो भाजपा कई वर्षों के लिये अपनी राजनैतिक जमीन खो सकती है। और इसी खतरे को भांपकर भाजपा ने अपने युवाओं की टीम पूरी आक्रामकता के साथ उतार दी। 30 जुलाई को भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने जातिगत जनगणना के मुद्दे को काउंटर करते हुये एक बहुत ही हल्का बयान दे डाला। उन्होंने कहा कि जिनकी खुद की जाति का पता नहीं वे जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं?
यह एक व्यक्तिगत उलाहना माना गया। राहुल गांधी ने इसे उनको दी गई गाली के रूप में लिया। तो क्या यह गाली थी? क्या जाति बताना कानूनी बाध्यता है? क्या जिस सनातन धर्म की कुछ लोग ठेकेदारी कर रहे हैं, उस सनातन धर्म में जाति उसी रूप में बताई गई है जैसा सनातन के ये स्वयंभू ठेकेदार बताते हैं और लगातार नेहरू-गाँधी परिवार पर हल्के और बेहूदे कटाक्ष सोशल मीडिया पर करते हुये उनका मजाक बनाते रहे हैं? सनातन धर्म में जाति पर हम स्टोरी के अगले भाग में बात करेंगे। फिलहाल हम नैतिक व संवैधानिक व्यवस्था पर चर्चा करेंगे।
किसी की जाति पूछना और किसी पर जातिगत टिप्पणी करना कि "जिन्हें अपनी जाति के बारे में पता नहीं" के अर्थों में स्पष्ट अन्तर है। एक सामान्य सा प्रश्न है जिसका जवाब सामने वाला दे अथवा न दे, ये उसके ऊपर निर्भर करता है। दूसरा स्पष्ट फैसला सुनाये जाने जैसा है कि फलाने को उसकी अथवा उसके अभिभावकों की जाति ही नहीं पता? हालांकि अनुराग ठाकुर ने किसी का नाम नहीं लिया लेकिन उस कटाक्ष से सभी यह समझ चुके थे कि निशाना किस पर साधा गया था?
हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना करते हुये यह कल्पना की थी कि देश जातिगत भेदभावों से ऊपर उठेगा और इसी की भावना का आदर करते हुये कई लोगों ने स्वयं को धर्म व जाति से परे एक भारतीय माना। वैधानिक रूप से इसमें सफलता पाने में सफल रहीं तमिलनाडु के वैल्लोर की एक वकील स्नेहा। 2010 में उन्होंने "No Caste, No Religion" सर्टिफिकेट पाने के लिये आवेदन किया और नौ वर्ष बाद उन्हें इसमें सफलता मिली। तिरूपत्तूर जिले के तहसीलदार टी.एस. सत्यमूर्ति ने उन्हें 5 फरवरी 2019 को "No Caste, No Religion" का सर्टिफिकेट प्रदान किया। उनके माता-पिता भी अपने जाति-धर्म के कॉलम को खाली छोड़ते थे व ऐसा ही स्नेहा के संबंध में भी उन्होंने किया।
उपरोक्त मामला इसलिये बताया ताकि यह स्पष्ट हो सके कि जाति का उल्लेख करना या न करना व्यक्ति के ऊपर निर्भर है। हमारे देश में "जाति है कि जाती नहीं" यह एक मजबूरी माना गया लेकिन उपरोक्त प्रकरण यह बताता है कि यह अब मजबूरी नहीं है। किसी के जन्म, जाति आदि का मजाक बनाना अमानवीय तो है ही और इसे सभ्यता के दायरे में नहीं रखा जा सकता।
(इसी स्टोरी के अगले भाग में हम चर्चा करेंगे कि सनातन धर्म के अनुसार भी क्या जाति को लेकर इनके स्वयंभू ठेकेदारों को कुछ ज्ञान है?)



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