-प्रकाश कुमार सक्सेना
प्रचार में तो बेटा-बेटियों, भांजा-भांजियो को संबोधित करता मामा दिखाया जाता था और ऐसा अहसास कराया जाता था कि ये सबकुछ मामा अपनी जेब से देगा? हम भी इसी गलतफहमी में यह सोचते रहे कि चलो मामा अपना जैत-वैत का कोई खेत बेंचकर यह खैरात बांटेगा? तो फिर ये सारा कर्जा?
एक होटल के बाहर एक तख्ती पर लिखा था आप आज खायें पैसा भविष्य में आपके बच्चों के बच्चे देंगे। फिर क्या था...माल-ए-मुफ्त देखकर अपुन का भी दिल बेरहम हो गया। टूट पड़े होटल में मुफ्त के माल पर। खा पीकर वॉश बेसिन में हाथ धोकर जैसे ही पलटे, बैरा बिल हाथ में लिये खड़ा था। हमने चौंककर पूछा कि भाई, बाहर तो आपने लिखा था कि आप खायें बिल आपके बच्चों के बच्चे चुकायेंगे? बैरा बड़ी विनम्रता से बोला कि साहेब ये बिल आपके खाये का नहीं है बल्कि आपके दादाजी किसी जमाने में खा गये थे यह उसका है।
तो वैसा ही झटका कल इस खबर को पढ़कर लगा। खाया किसी ने, चेहरा और चेहरे पे सेहरा सजाया किसी ने और भुगतान आने वाली पीढ़ी करेगी? तो अभी की महंगाई? ये किसलिये? तो इसके लिये भी सुना है कि मामा के बाशिंदों की बौद्धिक टीम चाचा के नाम से इस बिल को फाड़कर हम पर थोपने की तैयारी कर चुकी है। कौन चाचा? अरे वही? चाचा नेहरू?
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